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जब मेरा घर बहिश्त सी गुल-वादियों में था - अजीत सिंह हसरत कविता - Darsaal

जब मेरा घर बहिश्त सी गुल-वादियों में था

जब मेरा घर बहिश्त सी गुल-वादियों में था

उस वक़्त मैं घिरा हुआ शहज़ादियों में था

वो दिन हवा हुए वो ज़माने गुज़र गए

बंदे का जब क़याम परी-ज़ादियों में था

यक बार जो उजड़ गए बस्ते हुए नगर

लगता है कोई भूत भी इन वादियों में था

बैठा था जिस पे मैं ने वही शाख़ काट दी

ख़ुद मेरा हाथ ही मिरी बर्बादियों में था

सद शुक्र है कि मुझ पे निगाह-ए-करम पड़ी

कब से उदास बैठा मैं फ़रियादियों में था

अपने बनाए जाल में ख़ुद फँस के रह गया

मसरूफ़ मेरा यार जो उस्तादियों में था

'हसरत' ज़रा सी भूल हमें क़ैद कर गई

वो लुत्फ़ अब कहाँ है जो आज़ादियों में था

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