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वो जो फूल थे तिरी याद के तह-ए-दस्त-ए-ख़ार चले गए - अजय सहाब कविता - Darsaal

वो जो फूल थे तिरी याद के तह-ए-दस्त-ए-ख़ार चले गए

वो जो फूल थे तिरी याद के तह-ए-दस्त-ए-ख़ार चले गए

तिरे शहर में भी सुकून है तिरे बे-क़रार चले गए

न वो अश्क अब न वो आबले न वो चीख़ती हुई धड़कनें

मिरी ज़ात से तिरे दर्द के सभी इश्तिहार चले गए

न वो याद है न वो हिज्र है न निगाह-ए-नाज़ का ज़िक्र है

मिरे ज़ेहन से तिरी फ़िक्र के सभी रोज़गार चले गए

थे वो फ़ितरतन ही शहीद-ख़ू उन्हें क़ातिलों से भी प्यार था

कभी मक़्तलों में कटे थे वो कभी सू-ए-दार चले गए

न बदन बचा न लहू बचा न तो जिस्म का कोई मू बचा

कोई जा के कह दे ये दर्द से वो तिरे शिकार चले गए

यूँ अबस किसी को सदा न दो दिल-ए-ज़ार को ये बता भी दो

कभी अब न आएँगे लौट कर वो जो एक बार चले गए

उन्हें क्या ललक तिरे फ़ैज़ की उन्हें क्या तलब तिरे वस्ल की

जो मिज़ाज ले के फ़क़ीर का सर-ए-कू-ए-यार चले गए

है ये सच कि मौसम-ए-हिज्र में मिरा ख़ार ख़ार बदन हुआ

कभी याद तुझ को जो कर लिया तो बदन के ख़ार चले गए

न ख़ुशी में अब वो सुरूर है न तो दर्द में वो नशा रहा

लो 'सहाब' बादा-ए-इश्क़ के वो सभी ख़ुमार चले गए

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