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वही हैं क़त्ल-ओ-ग़ारत और वही कोहराम है साक़ी - अजय सहाब कविता - Darsaal

वही हैं क़त्ल-ओ-ग़ारत और वही कोहराम है साक़ी

वही हैं क़त्ल-ओ-ग़ारत और वही कोहराम है साक़ी

तमद्दुन और मज़हब की ये ख़ूनी शाम है साक़ी

कमाल-ए-फ़न मिरा अब तक निहाँ है ऐसे दुनिया से

कि ज्यूँ अब्दुलहई में इक अलिफ़ गुमनाम है साक़ी

मेरी गंग-ओ-जमन तहज़ीब की दुख़्तर है ये उर्दू

इसे मुस्लिम बनाने की ये साज़िश आम है साक़ी

करेंगे अम्न की बातें दिलों में बुग़्ज़ रक्खेंगे

यही रस्म-ए-जहाँ और फ़ितरत-ए-अक़वाम है साक़ी

क़द-ए-शाइर के बदले देखिए मेयार शे'रों का

फ़क़त इतना मिरी ग़ज़लों का ये पैग़ाम है साक़ी

अरूज़-ओ-इल्म की ता'लीम मुझ को कब रही हासिल

मिरा उस्ताद तो बस ये ग़म-ए-अय्याम है साक़ी

वही ग़ालिब है अब तो जो ख़रीदे शोहरतें अपनी

रुबाई बेचने वाला उमर-'ख़य्याम' है साक़ी

ये ग़ज़लें ग़ैब से नाज़िल नहीं अश्कों का हासिल हैं

मिरा ये दर्द ही सब से बड़ा इल्हाम है साक़ी

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