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शाम आई है लिए हाथ में यादों के चराग़ - अजय सहाब कविता - Darsaal

शाम आई है लिए हाथ में यादों के चराग़

शाम आई है लिए हाथ में यादों के चराग़

वो तिरे साथ गुज़ारे हुए लम्हों के चराग़

मेरे इस घर में अँधेरा कभी होता ही नहीं

हैं मिरे सीने में जलते हुए ज़ख़्मों के चराग़

लाख तूफ़ान हों कुटिया मिरी रौशन ही रही

एक बरसात से बुझने लगे महलों के चराग़

ज़िंदगी तल्ख़ हक़ीक़त की है अंधी सी गली

अपनी आँखों में जलाते रहो सपनों के चराग़

एक मुद्दत से धधकता रहा मेरा ये ज़ेहन

तब कहीं जा के फ़रोज़ाँ हुए लफ़्ज़ों के चराग़

ख़ुद का ही नूर किया करता है रौशन दिल को

रौशनी तुझ को भला कैसे दें ग़ैरों के चराग़

सारी दुनिया को ख़ुदा एक ही सूरज दे दे

काश बुझ जाएँ ज़माने से ये फ़िर्क़ों के चराग़

अब तो जम्हूर की ताक़त का ही सूरज है 'सहाब'

अब ज़माने में कहाँ जलते हैं शाहों के चराग़

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