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सहरा-ए-ला-हुदूद में तिश्ना-लबी की ख़ैर - अजय सहाब कविता - Darsaal

सहरा-ए-ला-हुदूद में तिश्ना-लबी की ख़ैर

सहरा-ए-ला-हुदूद में तिश्ना-लबी की ख़ैर

माहौल-ए-अश्क-बार में लब की हँसी की ख़ैर

लफ़्फ़ाज़ सारे बन गए शाह-ए-सुख़न यहाँ

सादिक़ सुख़न-वरों की सुख़न-परवरी की ख़ैर

मशरिक़ में हिन्द-ओ-चीन के बाज़ार यूँ बढ़े

जाह-ओ-जलाल-ए-मग़रिब-ओ-बरतानवी की ख़ैर

है औरतों की धूम ज़मीं से फ़लक तलक

सइ-ए-बक़ा-ए-शौकत-ए-मर्दानगी की ख़ैर

अर्ज़ां है मुश्त-ए-ख़ाक से इंसान की हयात

तहज़ीब-ए-क़त्ल-ओ-ख़ून में अब ज़िंदगी की ख़ैर

हर सम्त क़त्ल-ए-आम है मज़हब के नाम पर

सारी अक़ीदतों की खुदा-परवरी की ख़ैर

जम्हूरियत की लाश पे ताक़त है ख़ंदा-ज़न

इस बरहना निज़ाम में हर आदमी की ख़ैर

सारा वतन समझ चुका दैर-ओ-हरम का सच

बद-कार रहबरान की बाज़ीगरी की ख़ैर

उर्दू ग़ज़ल के नाम पे चलते हैं चुटकुले

ग़ालिब के फ़ैज़ 'मीर' की उस साहिरी की ख़ैर

मग़रिब से आ गई यहाँ तहज़ीब-ए-बरहना

मशरिक़ तिरी रिवायती पाकीज़गी की ख़ैर

अंधे परख रहे यहाँ मेआ'र-ए-रौशनी

दीदावर-ए-हुनर तिरी दीदा-वरी की ख़ैर

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