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हम भी गुज़र गए यहाँ कुछ पल गुज़ार के - अजय सहाब कविता - Darsaal

हम भी गुज़र गए यहाँ कुछ पल गुज़ार के

हम भी गुज़र गए यहाँ कुछ पल गुज़ार के

रातें थीं क़र्ज़ की यहाँ दिन थे उधार के

जैसे पुराना हार था रिश्ता तिरा मिरा

अच्छा किया जो रख दिया तू ने उतार के

दिल में हज़ार दर्द हों आँसू छुपा के रख

कोई तो कारोबार हो बिन इश्तिहार के

क्या जाने अब भी दर्द को क्यूँ है मिरी तलाश

टुकड़े भी अब कहाँ बचे इस के शिकार के

शायद ज़बाँ पे क़र्ज़ था हम ने चुका दिया

ख़ामोश हो गए हैं तुझे हम पुकार के

ऐसे सुलग उठा तिरी यादों से दिल मिरा

जैसे धधक उठें कहीं जंगल चिनार के

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