फूल थे रंग थे लम्हों की सबाहत हम थे
ऐसे ज़िंदा थे कि जीने की अलामत हम थे
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किसे पाने की ख़्वाहिश है कि 'साजिद'
कभी तू ने ख़ुद भी सोचा कि ये प्यास है तो क्यूँ है
तुम्हें जब कभी मिलें फ़ुर्सतें मिरे दिल से बोझ उतार दो
छोटे छोटे कई बे-फ़ैज़ मफ़ादात के साथ
मुझे वो कुंज-ए-तन्हाई से आख़िर कब निकालेगा
बरसों ब'अद हमें देखा तो पहरों उस ने बात न की
मिरी रूह में जो उतर सकें वो मोहब्बतें मुझे चाहिएँ
जो मिरी शबों के चराग़ थे जो मिरी उमीद के बाग़ थे
ढूँडते क्या हो इन आँखों में कहानी मेरी
किसी को साल-ए-नौ की क्या मुबारकबाद दी जाए
जिस को हम ने चाहा था वो कहीं नहीं इस मंज़र में
आने वाली थी ख़िज़ाँ मैदान ख़ाली कर दिया