मुख़्तलिफ़ अपनी कहानी है ज़माने भर से
मुनफ़रिद हम ग़म-ए-हालात लिए फिरते हैं
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फ़त्ह का ग़म
डाइरी में सारे अच्छे शेर चुन कर लिख लिए
पहले ग़म-ए-फ़ुर्क़त के ये तेवर तो नहीं थे
तुम्हें ख़याल-ए-ज़ात है शुऊर-ए-ज़ात ही नहीं
फूलों में वो ख़ुशबू वो सबाहत नहीं आई
जुदाइयों की ख़लिश उस ने भी न ज़ाहिर की
किसी को साल-ए-नौ की क्या मुबारकबाद दी जाए
तअल्लुक़ किर्चियों की शक्ल में बिखरा तो है फिर भी
वो पहली जैसी वहशतें वो हाल ही नहीं रहा
आँखों से अयाँ ज़ख़्म की गहराई तो अब है
मिरी रूह में जो उतर सकें वो मोहब्बतें मुझे चाहिएँ
मेरी पोशाक तो पहचान नहीं है मेरी