मेरी पोशाक तो पहचान नहीं है मेरी
दिल में भी झाँक मिरी ज़ाहिरी हालत पे न जा
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ये क्या हालत बना रक्खी है ये आसार कैसे हैं
तअल्लुक़ात में गहराइयाँ तो अच्छी हैं
अजब नशा है तिरे क़ुर्ब में कि जी चाहे
मकीनों के तअल्लुक़ ही से याद आती है हर बस्ती
हम तिरे ख़्वाबों की जन्नत से निकल कर आ गए
छोटे छोटे से मफ़ादात लिए फिरते हैं
घर की दहलीज़ से बाज़ार में मत आ जाना
ढूँडते क्या हो इन आँखों में कहानी मेरी
मुझ से मुख़्लिस था न वाक़िफ़ मिरे जज़्बात से था
जिस को हम ने चाहा था वो कहीं नहीं इस मंज़र में
न गुमान मौत का है न ख़याल ज़िंदगी का
मुझे अपने रूप की धूप दो कि चमक सकें मिरे ख़ाल-ओ-ख़द