मैं तकिए पर सितारे बो रहा हूँ
जनम-दिन है अकेला रो रहा हूँ
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तिलिस्म-ज़ार-ए-शब-ए-माह में गुज़र जाए
ज़ख़्मों का दो-शाला पहना धूप को सर पर तान लिया
मुझे ऐसा लुत्फ़ अता किया कि जो हिज्र था न विसाल था
जाने किस चाह के किस प्यार के गुन गाते हो
फूल थे रंग थे लम्हों की सबाहत हम थे
तअल्लुक़ किर्चियों की शक्ल में बिखरा तो है फिर भी
छोटे छोटे कई बे-फ़ैज़ मफ़ादात के साथ
इतना पसपा न हो दीवार से लग जाएगा
घर की दहलीज़ से बाज़ार में मत आ जाना
ये जो फूलों से भरा शहर हुआ करता था
रस्ते का इंतिख़ाब ज़रूरी सा हो गया
भीड़ है बर-सर-ए-बाज़ार कहीं और चलें