किसे पाने की ख़्वाहिश है कि 'साजिद'
मैं रफ़्ता रफ़्ता ख़ुद को खो रहा हूँ
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मुझे अपने रूप की धूप दो कि चमक सकें मिरे ख़ाल-ओ-ख़द
फ़त्ह का ग़म
दिल हैं यूँ मुज़्तरिब मकानों में
आने वाली थी ख़िज़ाँ मैदान ख़ाली कर दिया
किसी को साल-ए-नौ की क्या मुबारकबाद दी जाए
तुम्हें जब कभी मिलें फ़ुर्सतें मिरे दिल से बोझ उतार दो
मैं तकिए पर सितारे बो रहा हूँ
छोटे छोटे से मफ़ादात लिए फिरते हैं
वो पहली जैसी वहशतें वो हाल ही नहीं रहा
मुख़्तलिफ़ अपनी कहानी है ज़माने भर से
तिरे जैसा मेरा भी हाल था न सुकून था न क़रार था