जुदाइयों की ख़लिश उस ने भी न ज़ाहिर की
छुपाए अपने ग़म ओ इज़्तिराब मैं ने भी
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कभी तू ने ख़ुद भी सोचा कि ये प्यास है तो क्यूँ है
अब तो ख़ुद अपनी ज़रूरत भी नहीं है हम को
फिर वही लम्बी दो-पहरें हैं फिर वही दिल की हालत है
बंदे ज़मीन और आसमाँ सरमा की शब कहानियाँ
जो ख़याल थे न क़यास थे वही लोग मुझ से बिछड़ गए
शहर-ए-हवा में जलते रहना अंदेशों की चौखट पर
मुख़्तलिफ़ अपनी कहानी है ज़माने भर से
किसी ने दिल के ताक़ पर जला के रख दिया हमें
तअल्लुक़ात में गहराइयाँ तो अच्छी हैं
छोटे छोटे कई बे-फ़ैज़ मफ़ादात के साथ
फ़त्ह का ग़म
इतना पसपा न हो दीवार से लग जाएगा