इतना पसपा न हो दीवार से लग जाएगा
इतने समझौते न कर सूरत-ए-हालात के साथ
Anwar Masood
Habib Jalib
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Jaun Eliya
Allama Iqbal
Javed Akhtar
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ज़ख़्मों का दो-शाला पहना धूप को सर पर तान लिया
मकीनों के तअल्लुक़ ही से याद आती है हर बस्ती
वो पहली जैसी वहशतें वो हाल ही नहीं रहा
ये बरसों का तअल्लुक़ तोड़ देना चाहते हैं हम
जाने किस चाह के किस प्यार के गुन गाते हो
ग़ज़ल फ़ज़ा भी ढूँडती है अपने ख़ास रंग की
मुझे अपने रूप की धूप दो कि चमक सकें मिरे ख़ाल-ओ-ख़द
अब तो ख़ुद अपनी ज़रूरत भी नहीं है हम को
ढूँडते क्या हो इन आँखों में कहानी मेरी
मुझे वो कुंज-ए-तन्हाई से आख़िर कब निकालेगा
पहले ग़म-ए-फ़ुर्क़त के ये तेवर तो नहीं थे
मैं तकिए पर सितारे बो हा हूँ