हम तिरे ख़्वाबों की जन्नत से निकल कर आ गए
देख तेरा क़स्र-ए-आली-शान ख़ाली कर दिया
Anwar Masood
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दिए मुंडेर प रख आते हैं हम हर शाम न जाने क्यूँ
ये हसीं लोग हैं तू इन की मुरव्वत पे न जा
कष्ट
गुफ़्तुगू देर से जारी है नतीजे के बग़ैर
अब तो ख़ुद अपनी ज़रूरत भी नहीं है हम को
तअल्लुक़ात में गहराइयाँ तो अच्छी हैं
घर की दहलीज़ से बाज़ार में मत आ जाना
मुझे वो कुंज-ए-तन्हाई से आख़िर कब निकालेगा
ये जो फूलों से भरा शहर हुआ करता था
जाने किस चाह के किस प्यार के गुन गाते हो
मिरी रूह में जो उतर सकें वो मोहब्बतें मुझे चाहिएँ