गुफ़्तुगू देर से जारी है नतीजे के बग़ैर
इक नई बात निकल आती है हर बात के साथ
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मुझे ऐसा लुत्फ़ अता किया कि जो हिज्र था न विसाल था
मुझे वो कुंज-ए-तन्हाई से आख़िर कब निकालेगा
बंद दरीचे सूनी गलियाँ अन-देखे अनजाने लोग
फिर वही लम्बी दो-पहरें हैं फिर वही दिल की हालत है
रस्ते का इंतिख़ाब ज़रूरी सा हो गया
मुझ से मुख़्लिस था न वाक़िफ़ मिरे जज़्बात से था
ज़ख़्मों का दो-शाला पहना धूप को सर पर तान लिया
अब तो ख़ुद अपनी ज़रूरत भी नहीं है हम को
न गुमान मौत का है न ख़याल ज़िंदगी का
तअल्लुक़ किर्चियों की शक्ल में बिखरा तो है फिर भी
मकीनों के तअल्लुक़ ही से याद आती है हर बस्ती