ग़ज़ल फ़ज़ा भी ढूँडती है अपने ख़ास रंग की
हमारा मसअला फ़क़त क़लम दवात ही नहीं
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ये बरसों का तअल्लुक़ तोड़ देना चाहते हैं हम
मैं तकिए पर सितारे बो रहा हूँ
जिस को हम ने चाहा था वो कहीं नहीं इस मंज़र में
रस्ते का इंतिख़ाब ज़रूरी सा हो गया
मुझ से मुख़्लिस था न वाक़िफ़ मिरे जज़्बात से था
ज़ख़्मों का दो-शाला पहना धूप को सर पर तान लिया
तिरे जैसा मेरा भी हाल था न सुकून था न क़रार था
तुम्हें जब कभी मिलें फ़ुर्सतें मिरे दिल से बोझ उतार दो
कभी तू ने ख़ुद भी सोचा कि ये प्यास है तो क्यूँ है
तिलिस्म-ज़ार-ए-शब-ए-माह में गुज़र जाए
छोटे छोटे कई बे-फ़ैज़ मफ़ादात के साथ
कैसे कहीं कि जान से प्यारा नहीं रहा