छोटे छोटे कई बे-फ़ैज़ मफ़ादात के साथ
लोग ज़िंदा हैं अजब सूरत-ए-हालात के साथ
Faiz Ahmad Faiz
Gulzar
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जाने किस चाह के किस प्यार के गुन गाते हो
कष्ट
ज़ख़्मों का दो-शाला पहना धूप को सर पर तान लिया
मुझ से मुख़्लिस था न वाक़िफ़ मिरे जज़्बात से था
कभी तू ने ख़ुद भी सोचा कि ये प्यास है तो क्यूँ है
ये बरसों का तअल्लुक़ तोड़ देना चाहते हैं हम
दिल हैं यूँ मुज़्तरिब मकानों में
रिहा कर दे क़फ़स की क़ैद से घायल परिंदे को
बहुत सजाए थे आँखों में ख़्वाब मैं ने भी
किसे पाने की ख़्वाहिश है कि 'साजिद'
मुख़्तलिफ़ अपनी कहानी है ज़माने भर से
इतना पसपा न हो दीवार से लग जाएगा