भीड़ है बर-सर-ए-बाज़ार कहीं और चलें
आ मिरे दिल मिरे ग़म-ख़्वार कहीं और चलें
Wasi Shah
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तअल्लुक़ किर्चियों की शक्ल में बिखरा तो है फिर भी
कहा तख़्लीक़-ए-फ़न बोले बहुत दुश्वार तो होगी
अब तो ख़ुद अपनी ज़रूरत भी नहीं है हम को
दिए मुंडेर प रख आते हैं हम हर शाम न जाने क्यूँ
मुझ से मुख़्लिस था न वाक़िफ़ मिरे जज़्बात से था
कष्ट
इतना पसपा न हो दीवार से लग जाएगा
डाइरी में सारे अच्छे शेर चुन कर लिख लिए
तर्क-ए-तअल्लुक़ कर तो चुके हैं इक इम्कान अभी बाक़ी है
ये जो फूलों से भरा शहर हुआ करता था
मुहताज हम-सफ़र की मसाफ़त न थी मिरी
किसी ने दिल के ताक़ पर जला के रख दिया हमें