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रस्ते का इंतिख़ाब ज़रूरी सा हो गया - ऐतबार साजिद कविता - Darsaal

रस्ते का इंतिख़ाब ज़रूरी सा हो गया

रस्ते का इंतिख़ाब ज़रूरी सा हो गया

अब इख़्तिताम-ए-बाब ज़रूरी सा हो गया

हम चुप रहे तो और भी इल्ज़ाम आएगा

अब कुछ न कुछ जवाब ज़रूरी सा हो गया

हम टालते रहे कि ये नौबत न आने पाए

फिर हिज्र का अज़ाब ज़रूरी सा हो गया

हर शाम जल्द सोने की आदत ही पड़ गई

हर रात एक ख़्वाब ज़रूरी सा हो गया

आहों से टूटता नहीं ये गुम्बद-ए-सियाह

अब संग-ए-आफ़्ताब ज़रूरी सा हो गया

देना है इम्तिहान तुम्हारे फ़िराक़ का

अब सब्र का निसाब ज़रूरी सा हो गया

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