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मिरी रूह में जो उतर सकें वो मोहब्बतें मुझे चाहिएँ - ऐतबार साजिद कविता - Darsaal

मिरी रूह में जो उतर सकें वो मोहब्बतें मुझे चाहिएँ

मिरी रूह में जो उतर सकें वो मोहब्बतें मुझे चाहिएँ

जो सराब हों न अज़ाब हों वो रिफाक़तें मुझे चाहिएँ

उन्हीं साअ'तों की तलाश है जो कैलेंडरों से उतर गईं

जो समय के साथ गुज़र गईं वही फ़ुर्सतें मुझे चाहिएँ

कहीं मिल सकें तो समेट ला मरे रोज़ ओ शब की कहानियाँ

जो ग़ुबार-ए-वक़्त में छुप गईं वो हिकायतें मुझे चाहिएँ

जो मिरी शबों के चराग़ थे जो मिरी उमीद के बाग़ थे

वही लोग हैं मिरी आरज़ू वही सूरतें मुझे चाहिएँ

तिरी क़ुर्बतें नहीं चाहिएँ मरी शाइरी के मिज़ाज को

मुझे फ़ासलों से दवाम दे तरी फ़ुर्क़तें मुझे चाहिएँ

मुझे और कुछ नहीं चाहिए ये दुआएँ हैं मरे साएबाँ

कड़ी धूप में कहीं मिल सकें तो यही छतें मुझे चाहिएँ

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