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किसी को हम से हैं चंद शिकवे किसी को बेहद शिकायतें हैं - ऐतबार साजिद कविता - Darsaal

किसी को हम से हैं चंद शिकवे किसी को बेहद शिकायतें हैं

किसी को हम से हैं चंद शिकवे किसी को बेहद शिकायतें हैं

हमारे हिस्से में सिर्फ़ अपनी सफ़ाइयाँ हैं वज़ाहतें हैं

क़दम क़दम पर बदल रहे हैं मुसाफ़िरों की तलब के रस्ते

हवाओं जैसी मोहब्बतें हैं सदाओं जैसी रिफाक़तें हैं

किसी का मक़रूज़ मैं नहीं पर मिरे गरेबाँ पे हाथ सब के

कोई मिरी चाहतों का दुश्मन किसी को दरकार चाहतें हैं

तिरी जुदाई के कितने सूरज उफ़ुक़ पे डूबे मगर अभी तक

ख़लिश है सीने में पहले दिन सी लहू मैं वैसी ही वहशतें हैं

मिरी मोहब्बत के राज़-दाँ ने ये कह के लौटा दिया मिरा ख़त

कि भीगी भीगी सी आँसुओं में तमाम गुंजलक इबारतें हैं

मैं दूसरों की ख़ुशी की ख़ातिर ग़ुबार बन कर बिखर गया हूँ

मगर किसी ने ये हक़ न माना कि मेरी भी कुछ ज़रूरतें हैं

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