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कैसे कहीं कि जान से प्यारा नहीं रहा - ऐतबार साजिद कविता - Darsaal

कैसे कहीं कि जान से प्यारा नहीं रहा

कैसे कहीं कि जान से प्यारा नहीं रहा

ये और बात अब वो हमारा नहीं रहा

आँसू तिरे भी ख़ुश्क हुए और मेरे भी

नम अब किसी नदी का किनारा नहीं रहा

कुछ दिन तुम्हारे लौट के आने की आस थी

अब इस उम्मीद का भी सहारा नहीं रहा

रस्ते मह-ओ-नुजूम के तब्दील हो गए

इन खिड़कियों में एक भी तारा नहीं रहा

समझे थे दूसरों से बहुत मुख़्तलिफ़ तुझे

क्या मान लें कि तू भी हमारा नहीं रहा

हाथों पे बुझ गई है मुक़द्दर की कहकशाँ

या राख हो गया वो सितारा नहीं रहा

तुम ए'तिबार उस के लिए क्यूँ उदास हो

इक शख़्स जो कभी भी तुम्हारा नहीं रहा

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