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जो ख़याल थे न क़यास थे वही लोग मुझ से बिछड़ गए - ऐतबार साजिद कविता - Darsaal

जो ख़याल थे न क़यास थे वही लोग मुझ से बिछड़ गए

जो ख़याल थे न क़यास थे वही लोग मुझ से बिछड़ गए

जो मोहब्बतों की असास थे वही लोग मुझ से बिछड़ गए

जिन्हें मानता ही नहीं ये दिल वही लोग मेरे हैं हम-सफ़र

मुझे हर तरह से जो रास थे वही लोग मुझ से बिछड़ गए

मुझे लम्हा-भर की रफ़ाक़तों के सराब और सताएँगे

मिरी उम्र-भर की जो प्यास थे वही लोग मुझ से बिछड़ गए

ये ख़याल सारे हैं आरज़ी ये गुलाब सारे हैं काग़ज़ी

गुल-ए-आरज़ू की जो बास थे वही लोग मुझ से बिछड़ गए

जिन्हें कर सका न क़ुबूल मैं वो शरीक-ए-राह-ए-सफ़र हुए

जो मिरी तलब मिरी आस थे वही लोग मुझ से बिछड़ गए

मिरी धड़कनों के क़रीब थे मिरी चाह थे मिरा ख़्वाब थे

वो जो रोज़-ओ-शब मिरे पास थे वही लोग मुझ से बिछड़ गए

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