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ढूँडते क्या हो इन आँखों में कहानी मेरी - ऐतबार साजिद कविता - Darsaal

ढूँडते क्या हो इन आँखों में कहानी मेरी

ढूँडते क्या हो इन आँखों में कहानी मेरी

ख़ुद में गुम रहना तो आदत है पुरानी मेरी

भीड़ में भी तुम्हें मिल जाऊँगा आसानी से

खोया खोया हुआ रहना है निशानी मेरी

मैं ने इक बार कहा था कि बहुत प्यासा हूँ

तब से मशहूर हुई तिश्ना-दहानी मेरी

यही दीवार-ओ-दर-ओ-बाम थे मेरे हमराज़

इन्ही गलियों में भटकती थी जवानी मेरी

तू भी इस शहर का बासी है तो दिल से लग जा

तुझ से वाबस्ता है इक याद पुरानी मेरी

कर्बला दश्त-ए-मोहब्बत को बना रक्खा है

क्या ग़ज़ल-गोई है क्या मर्सिया-ख़्वानी मेरी

धीमे लहजे का सुख़नवर हूँ न सहबा हूँ न जोश

मैं कहाँ और कहाँ शो'ला-बयानी मेरी

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