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बंद दरीचे सूनी गलियाँ अन-देखे अनजाने लोग - ऐतबार साजिद कविता - Darsaal

बंद दरीचे सूनी गलियाँ अन-देखे अनजाने लोग

बंद दरीचे सूनी गलियाँ अन-देखे अनजाने लोग

किस नगरी में आ निकले हैं 'साजिद' हम दीवाने लोग

एक हमी ना-वाक़िफ़ ठहरे रूप-नगर की गलियों से

भेस बदल कर मिलने वाले सब जाने-पहचाने लोग

दिन को रात कहें सो बर-हक़ सुब्ह को शाम कहें सो ख़ूब

आप की बात का कहना ही क्या आप हुए फ़रज़ाने लोग

शिकवा क्या और कैसी शिकायत आख़िर कुछ बुनियाद तो हो

तुम पर मेरा हक़ ही क्या है तुम ठहरे बेगाने लोग

शहर कहाँ ख़ाली रहता है ये दरिया हर-दम बहता है

और बहुत से मिल जाएँगे हम ऐसे दीवाने लोग

सुना है उस के अहद-ए-वफ़ा में हवा भी मुफ़्त नहीं मिलती

उन गलियों में हर हर साँस पे भरते हैं जुर्माने लोग

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