कलाम-ए-मीर समझे और ज़बान-ए-मीरज़ा समझे
मगर उन का कहा ये आप समझें या ख़ुदा समझे
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फूल अल्लाह ने बनाए हैं महकने के लिए
अगर अपना कहा तुम आप ही समझे तो क्या समझे
जो होता आह तिरी आह-ए-बे-असर में असर
दोस्त जब दिल सा आश्ना ही नहीं
बे-सबाती चमन-ए-दहर की है जिन पे खुली
बातें न किस ने हम को कहीं तेरे वास्ते
मेरा शिकवा तिरी महफ़िल में अदू करते हैं
मैं बुरा ही सही भला न सही
आशिक़ों को ऐ फ़लक देवेगा तू आज़ार क्या
ऐ शम्अ सुब्ह होती है रोती है किस लिए
क्या हुए आशिक़ उस शकर-लब के
सीने में इक खटक सी है और बस