बे-सबाती चमन-ए-दहर की है जिन पे खुली
हवस-ए-रंग न वो ख़्वाहिश-ए-बू करते हैं
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किसी की नेक हो या बद जहाँ में ख़ू नहीं छुपती
कलाम-ए-मीर समझे और ज़बान-ए-मीरज़ा समझे
कुछ कम नहीं हैं शम्अ से दिल की लगन में हम
न छोड़ी ग़म ने मिरे इक जिगर में ख़ून की बूँद
दोस्त जब दिल सा आश्ना ही नहीं
अगर अपना कहा तुम आप ही समझे तो क्या समझे
क्या हुए आशिक़ उस शकर-लब के
मैं बुरा ही सही भला न सही
ऐ शम्अ सुब्ह होती है रोती है किस लिए
जो होता आह तिरी आह-ए-बे-असर में असर
आशिक़ों को ऐ फ़लक देवेगा तू आज़ार क्या