ऐ शम्अ सुब्ह होती है रोती है किस लिए
थोड़ी सी रह गई है इसे भी गुज़ार दे
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फूल अल्लाह ने बनाए हैं महकने के लिए
आशिक़ों को ऐ फ़लक देवेगा तू आज़ार क्या
शोर अब आलम में है उस शोबदा-पर्दाज़ का
किसी की नेक हो या बद जहाँ में ख़ू नहीं छुपती
क्या हुए आशिक़ उस शकर-लब के
कुछ कम नहीं हैं शम्अ से दिल की लगन में हम
दोस्त जब दिल सा आश्ना ही नहीं
जुरअत ऐ दिल मय ओ मीना है वो ख़ुद-काम भी है
बे-सबाती चमन-ए-दहर की है जिन पे खुली
मैं बुरा ही सही भला न सही
मेरा शिकवा तिरी महफ़िल में अदू करते हैं