न छोड़ी ग़म ने मिरे इक जिगर में ख़ून की बूँद
न छोड़ी ग़म ने मिरे इक जिगर में ख़ून की बूँद
कहाँ से अश्क का हो कहिए चश्म-ए-तर में असर
हो उस के साथ ये बे-इल्तिफ़ाती-ए-गुल क्यूँ
जो अंदलीब के हो नाला-ए-सहर में असर
किसी का क़ौल है सच संग को करे है मोम
रक्खा है ख़ास ख़ुदा ने ये सीम ओ ज़र में असर
जो आह ने फ़लक-ए-पीर को हिला डाला
तो आप ही कहिए कि हैगा ये किस असर में असर
जो देख ले तो जहन्नम की फेरे बंध जाए
है मेरी आह के वो एक इक शरर में असर
बिगाड़ें चर्ख़ से हम 'ऐश' किस भरोसे पर
न आह में है न सोज़-ए-दिल-ओ-जिगर में असर
(759) Peoples Rate This