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जुरअत ऐ दिल मय ओ मीना है वो ख़ुद-काम भी है - ऐश देहलवी कविता - Darsaal

जुरअत ऐ दिल मय ओ मीना है वो ख़ुद-काम भी है

जुरअत ऐ दिल मय ओ मीना है वो ख़ुद-काम भी है

बज़्म अग़्यार से ख़ाली भी है और शाम भी है

ज़ुल्फ़ के नीचे ख़त-ए-सब्ज़ तो देखा ही न था

ऐ लो एक और नया दाम तह-ए-दाम भी है

चारागर जाने दे तकलीफ़-ए-मुदावा है अबस

मरज़-ए-इश्क़ से होता कहीं आराम भी है

हो गया आज शब-ए-हिज्र में ये क़ौल ग़लत

था जो मशहूर कि आग़ाज़ को अंजाम भी है

काम-ए-जानाँ मेरा लब-ए-यार के बोसे से सिवा

ख़ू-गर-ए-चाशनी-ए-लज़्ज़त-ए-दुश्नाम भी है

शैख़ जी आप ही इंसाफ़ से फ़रमाएँ भला

और आलम में कोई ऐसा भी बदनाम भी है

ज़ुल्फ़ ओ रुख़ दैर ओ हरम शाम ओ सहर 'ऐश' इन में

ज़ुल्मत-ए-कुफ़्र भी है जल्वा-ए-इस्लाम भी है

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