आशिक़ों को ऐ फ़लक देवेगा तू आज़ार क्या

आशिक़ों को ऐ फ़लक देवेगा तू आज़ार क्या

दुश्मन-ए-जाँ उन का थोड़ा है दिल-ए-बीमार क्या

रश्क आवे क्यूँ न मुझ को देखना उस की तरफ़

टकटकी बाँधे हुए है रौज़न-ए-दीवार क्या

आह ने तो ख़ेमा-ए-गर्दूं को फूँका देखें अब

रंग लाते हैं हमारे दीदा-ए-ख़ूँ-बार क्या

मुर्ग़-ए-दिल के वास्ते ऐ हम-सफ़ीरो कम है क्यूँ

कुछ क़ज़ा के तीर से तीर-ए-निगाह-ए-यार क्या

चल के मय-ख़ाने ही में अब दिल को बहलाओ ज़रा

'ऐश' याँ बैठे हुए करते हो तुम बेगार क्या

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