ज़ेहन पर जब दर्द ख़ामोशी की चादर तानता है
ज़ेहन पर जब दर्द ख़ामोशी की चादर तानता है
क़तरा क़तरा आँख से लफ़्ज़-ओ-मआनी छानता है
हर कस-ओ-ना-कस को रास आती नहीं आवारागर्दी
रास्ते उस पर ही खुलते हैं जो चलना जानता है
नक़्श-ए-पारीना हटा कर मैं नए पैकर तराशूँ
कूज़ा-गर कंकर हटा कर जैसे मिट्टी सानता है
वो है दीवाना उसे गुमनामी ओ तश्हीर से क्या
ख़ामुशी से कर गुज़रता है जो दिल में ढानता है
कोर-चश्मी ने बिखेरा हुस्न का शीराज़ा वर्ना
इश्तिहारी जिस्म भी पोशीदगी को मानता है
ये सिला भी कम नहीं 'आज़िम' तिरी मश्क़-ए-सुख़न का
कोई ग़ज़लों के हवाले से तुझे पहचानता है
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