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ज़ेहन पर जब दर्द ख़ामोशी की चादर तानता है - ऐनुद्दीन आज़िम कविता - Darsaal

ज़ेहन पर जब दर्द ख़ामोशी की चादर तानता है

ज़ेहन पर जब दर्द ख़ामोशी की चादर तानता है

क़तरा क़तरा आँख से लफ़्ज़-ओ-मआनी छानता है

हर कस-ओ-ना-कस को रास आती नहीं आवारागर्दी

रास्ते उस पर ही खुलते हैं जो चलना जानता है

नक़्श-ए-पारीना हटा कर मैं नए पैकर तराशूँ

कूज़ा-गर कंकर हटा कर जैसे मिट्टी सानता है

वो है दीवाना उसे गुमनामी ओ तश्हीर से क्या

ख़ामुशी से कर गुज़रता है जो दिल में ढानता है

कोर-चश्मी ने बिखेरा हुस्न का शीराज़ा वर्ना

इश्तिहारी जिस्म भी पोशीदगी को मानता है

ये सिला भी कम नहीं 'आज़िम' तिरी मश्क़-ए-सुख़न का

कोई ग़ज़लों के हवाले से तुझे पहचानता है

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