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यही इक जिस्म-ए-फ़ानी जावेदानी का अहाता करने वाला है - ऐनुद्दीन आज़िम कविता - Darsaal

यही इक जिस्म-ए-फ़ानी जावेदानी का अहाता करने वाला है

यही इक जिस्म-ए-फ़ानी जावेदानी का अहाता करने वाला है

किराए का मकाँ ही ला-मकानी का अहाता करने वाला है

ठहर जाओ घड़ी भर धड़कनों इस तेज़-रौ का जाएज़ा ले लूँ

सुकूँ अंदर का बाहर की रवानी का अहाता करने वाला है

इसे आँसू समझ कर मत गिराओ रहने दो पलकों पे ही गोया

यही क़तरा तुम्हारी बे-ज़बानी का अहाता करने वाला है

गिला बरसों का है जितनी सफ़ाई दोगे उतना तूल पकड़ेगा

अब हर्फ़-ए-माज़रत ही लन्तरानी का अहाता करने वाला है

इन आँखों में ग़ज़ल का वो मुकम्मल इस्तिआ'रा है कि जो 'आज़िम'

ख़ुतूत-ए-जिस्म के लफ़्ज़-ओ-मआनी का अहाता करने वाला है

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