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सताइश न कीजिए तबर्रा सही - ऐनुद्दीन आज़िम कविता - Darsaal

सताइश न कीजिए तबर्रा सही

सताइश न कीजिए तबर्रा सही

नहीं बिन्त-ए-अंगूर ठर्रा सही

तअस्सुर नहीं उन के रुख़ पर न हो

है क़ुरआँ तो क़ुरआँ मुअर्रा सही

मगर कितने सूरज हैं दुश्मन मिरे

मिरी हैसियत एक ज़र्रा सही

कहाँ चैन तेरे जुनूँ-कार को

ग़म-ए-दो-जहाँ से मुबर्रा सही

बदन दर बदन इश्क़ रूह-ए-रवाँ

ज़माँ दर ज़माँ एक ढर्रा सही

रऊनत ग़रीबी का महसूल है

सुखी को सख़ावत का ग़र्रा सही

पिएँगे यूँही हँस के हम ज़हर-ए-ग़म

हमारे लिए रोज़-मर्रा सही

मिला कुछ तो क़ातिल से 'आज़िम' तुम्हें

पस-ए-दाग़-ए-दिल एक छर्रा सही

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