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मेरे हमराह सितारे कभी जुगनू निकले - ऐनुद्दीन आज़िम कविता - Darsaal

मेरे हमराह सितारे कभी जुगनू निकले

मेरे हमराह सितारे कभी जुगनू निकले

जुस्तुजू में तिरी हर रात मुहिम-जू निकले

तेरी रोती हुई आँखें हैं मिरी आँखों में

वर्ना पत्थर में कहाँ जान कि आँसू निकले

साँस लेने की जसारत भी न कर पाऊँगा

जिस्म से मेरे जो पल भर के लिए तू निकले

अहल-ए-दिल यूँही तर-ओ-ताज़ा नहीं रखते उन्हें

ज़ख़्म भर जाएँ तो मुमकिन नहीं ख़ुशबू निकले

ज़िक्र में तेरे गवारा नहीं इतना भी मुझे

मा-सिवा तेरे कोई और भी पहलू निकले

तेरी चौखट पे पहुँचना है सलामत मुझ को

जान प्यासे की जो निकले तो लब-ए-जू निकले

मैं वो नादान कि ढूँडूँ कोई अपने जैसा

और अहबाब थे 'आज़िम' कि अरस्तू निकले

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