ज़मीन अपने बेटों को पहचानती है
ज़मीन एक मुद्दत से
हफ़्त-आसमाँ की तरफ़ सर उठाए हुए
रो रही है
ज़मीन अपने आँसू
बहुत अपनी ही कोख में बो रही है
ज़मीं दिल-कुशादा है कितनी
फ़लक के उतारे हुए बोझ भी ढो रही है
फ़ज़ा पर बहुत धुँद छाई हुई है
जवाँ गुल-बदन शाहज़ादे
ज़मीं के दुलारे
उजड़ती हुई बज़्म के चाँद तारे
कटी गर्दनों गोलियों से छिदे जिस्म की
रुत सजाए लहू में नहाए
ज़मीं की तरफ़ आ रहे हैं
ज़मीं एक मुद्दत से
इस कार-ओ-बार-ए-सितम में घिरी है
ज़मीन रो रही है
मगर उस के आँसू की तहरीर
रौशन है इतनी
कि आइंदा मौसम इसी ज़िंदा तहरीर से
जगमगाते रहेंगे
अगर इस के शहज़ादे
यूँही लहू में नहाते रहेंगे
तो इक रोज़ तारीख़
उन के लिए हश्र बरपा करेगी
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