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इक शहर था इक बाग़ था - ऐन ताबिश कविता - Darsaal

इक शहर था इक बाग़ था

इक शहर था इक बाग़ था

इक शहर था

या ताज़ा मेवों से लदा इक बाग़ था

इक बाग़ था

या शोख़ रंगों से भरा बाज़ार था

बाज़ार था या जुगनुओं की रौशनी से खेलती इक रात थी

इक रात थी

या गुनगुनाती झूमती

नग़्मात की बारिश में भीगी

वस्ल की सौग़ात थी

इक शहर था इक बाग़ था इक रात थी

और उन के दामन में

बहार-ए-वस्ल की सौग़ात थी

इक रोज़ रंग-ओ-नूर के मौसम को

बाद-ए-शुर्त उड़ा कर ले गई

इक मौज-ए-ख़ूँ कहिए उसे

उस शहर के उस बाग़ के

नाम-ओ-निशाँ सारे बहा कर ले गई

ऐ नौहागर

ऐ राक़िम-ए-अफ़साना-ए-ज़ेर-ओ-ज़बर

ऐ चश्म-ए-हैरत चश्म-ए-तर

इबरत की जा है किस क़दर

अब याद का है एक अफ़्सुर्दा नगर

इस शहर में

कुछ देर को ठहरें ज़रा

नौहा करें

क़िस्सा लिखें

तारीख़ के औराक़ में

इक बाब खोलें याद का

तक़दीर-ए-हस्त-ओ-बूद का

मग़्मूम अफ़्साना लिखें

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