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बदलने का कोई मौसम नहीं होता - ऐन ताबिश कविता - Darsaal

बदलने का कोई मौसम नहीं होता

चले थे लोग जब घर से

तो इक वादे की तख़्ती अपनी पेशानी पर

रख कर लाए थे

जिस की गवाही में

सफ़र को आगे बढ़ना था

और उस के साथ

ख़्वाबों ख़्वाहिशों के नाम

उस वीरान घर को आगे बढ़ना था

तो इक वादे की तख़्ती थी

बहुत दिन तक जो रौशन थी सराबों में

पुरानी दास्तानें जागती ताज़ा निसाबों में

बहुत दिन तक हवा में संदली ख़ुश्बू महकती थी

सफ़र में चाँदनी घर की छिटकती थी

चले थे लोग जब घर से

बहुत मानूस थे

हर गुम-शुदा वीरान मंज़र से

चले थे लोग जब घर से

पुरानी बात लगती है

बहुत सी कड़ियाँ जैसे बीच से

अब टूटती जाती हैं

रुतें गुज़रीं हुई अब हाथ से

यूँ छूटती जाती हैं

जैसे आयतें बुझने लगी हों

सैल-ए-ज़ुल्मत में

वो इक वादे की तख़्ती गुम हुई

तूफ़ान-ए-हैरत में

बदलने का कोई मौसम नहीं होता

बहुत दिन जब बदलने में गुज़र जाते हैं

कुछ बदले हुए का ग़म नहीं होता

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