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अदम से परे - ऐन ताबिश कविता - Darsaal

अदम से परे

वो जगमगाता हुआ शहर मेरी आँखों में

तमाम रात लरज़ता है

आँसुओं की तरह

कभी सिसकता है टूटे हुए मनारों में

कभी टपकता है आवाज़ा-ए-बहार की सूरत

हिसाब क़तरा-ए-अश्क

आईना सुतूनों का

मिरे बुझे हुए चेहरे के सामने आ कर

पुकारता है

चले आओ जान अहद गुज़िश्ता

वो साएबान बहुत इंतिज़ार करता है

उजड़ गई है तकल्लुम की बस्तियाँ

लेकिन

निशानियाँ कई बाक़ी हैं

बुझती हुई बे-ज़बाँ फ़ज़ाओं में

हुरूफ़ ओ सौत ओ सदा के ग़ुबार की सूरत

कुशादा आँगनों का सुरमई अंधेरा लरज़ता है

कुछ परिंदों की

आलम पनाह आँखों में

वो जगमगाता हुआ शहर

एक क़िला-ए-आशुफ़्तगाँ भी है

जिस से

हर एक ख़्वाब अदम

सर पटकता रहता है

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