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वही जुनूँ की सोख़्ता-जानी वही फ़ुसूँ अफ़्सानों का - ऐन ताबिश कविता - Darsaal

वही जुनूँ की सोख़्ता-जानी वही फ़ुसूँ अफ़्सानों का

वही जुनूँ की सोख़्ता-जानी वही फ़ुसूँ अफ़्सानों का

उड़ा उड़ा सा बुझा बुझा सा रंग वही दीवानों का

दरिया तो मानूस है अश्क-लहू की ख़ुद-सर मौजों से

दश्त तुझे मालूम है सारा क़िस्सा इन हैरानों का

चाहत-भर उम्मीद रखी है और रस्तों-भर पा-मर्दी

दरवेशों के चाल-चलन में रंग है सब सुलतानों का

अभी नहीं तो आइंदा हम ख़ाक उड़ाने आएँगे

कौन सा काम रुका जाता है फ़क़ीरों बे-सामानों का

तू जो इस दुनिया की ख़ातिर अपना-आप गँवाता है

ऐ दिल-ए-मन ऐ मेरे मुसाफ़िर काम है ये नादानों का

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