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ख़ाकसारी थी कि बिन देखे ही हम ख़ाक हुए - ऐन ताबिश कविता - Darsaal

ख़ाकसारी थी कि बिन देखे ही हम ख़ाक हुए

ख़ाकसारी थी कि बिन देखे ही हम ख़ाक हुए

और कभी मारका-ए-फ़तह-ओ-ज़फ़र देख न पाए

उस ने देखा है तो फिर देखना क्या हो जाए

देखते रहना है ज़ालिम को इधर देख न पाए

बे-हुनर देख न सकते थे मगर देखने आए

देख सकते थे मगर अहल-ए-हुनर देख न पाए

हो गए ख़्वाहिश-ए-नज़्ज़ारा से बे-ख़ुद इतने

देखना चाहते थे उस को मगर देख न पाए

कब उसे लौट के देखेंगे ये देखा जाए

हम ने दुनिया तो बहुत देख ली घर देख न पाए

लोग जब देखने पर आए तो इतना देखा

आँख पथरा गई और हद-ए-नज़र देख न पाए

वो भी क्या देखना था देखने वाले बोले

जल्वा हर-चंद रहा पेश-ए-नज़र देख न पाए

दीप जलते रहे ताक़ों में उजाला न हुआ

आँख पाबंद-ए-तहय्युर थी उधर देख न पाए

ये तयक़्क़ुन नहीं होता था किधर देख सके

ये तअय्युन नहीं होता था किधर देख न पाए

वो तग़ाफ़ुल था कि उस ने हमें देखा ही नहीं

वो तसाहुल था कि हम उस की नज़र देख न पाए

इस क़दर तेज़ चली अब के हवा-ए-ना-बूद

चाह कर शहर-ए-तमन्ना का खंडर देख न पाए

यूँ हुआ दिल-ज़दगाँ लौट गए आख़िर-ए-शब

रात तो जाग के काटी थी सहर देख न पाए

किस ने देखी है उजालों से सुलगती हुई रात

और जो देख सके ख़्वाब-ए-सहर देख न पाए

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