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घनी सियह ज़ुल्फ़ बदलियों सी बिला सबब मुझ में जागती है - ऐन ताबिश कविता - Darsaal

घनी सियह ज़ुल्फ़ बदलियों सी बिला सबब मुझ में जागती है

घनी सियह ज़ुल्फ़ बदलियों सी बिला सबब मुझ में जागती है

वो ख़्वाहिश-ए-ना-मुराद अब तक तमाम शब मुझ में जागती है

वो एक बस्ती जो सो गई है उदास बे-नाम हो गई है

ब-हर्फ़-ओ-सौत अब भी चीख़ती है ब-चश्म-ओ-लब मुझ में जागती है

तिरे ख़यालों की मम्लिकत के तमाम असनाम गिर चुके हैं

बस इक तमन्ना-ए-काफ़िराना बस इक तलब मुझ में जागती है

मैं उस घड़ी अपने आप का सामना भी करने से भागता हूँ

वो ज़ीना ज़ीना उतरने वाली शबीह जब मुझ में जागती है

इस इक निगह में मैं कब हूँ लर्ज़ां उसे भी इस की ख़बर नहीं है

मैं ख़ुद भी इस बात को नहीं जानता वो कब मुझ में जागती है

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