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बज़्म ख़ाली नहीं मेहमान निकल आते हैं - ऐन ताबिश कविता - Darsaal

बज़्म ख़ाली नहीं मेहमान निकल आते हैं

बज़्म ख़ाली नहीं मेहमान निकल आते हैं

कुछ तो अफ़्साने मिरी जान निकल आते हैं

रोज़ इक मर्ग का आलम भी गुज़रता है यहाँ

रोज़ जीने के भी सामान निकल आते हैं

सोचता हूँ पर-ए-परवाज़ समेटूँ लेकिन

कितने भूले हुए पैमान निकल आते हैं

याद के सोए हुए क़ाफ़िले जाग उठते हैं

ख़्वाब के कुछ नए उनवान निकल आते हैं

बैठना चाहती है थक के जो वहशत अपनी

कितने ही दश्त-ओ-बयाबान निकल आते हैं

इस्तिआरे हैं जो आँखों से छलक पड़ते हैं

कितने ही अश्क के दीवान निकल आते हैं

इक ज़रा चैन भी लेते नहीं 'ताबिश'-साहब

मुल्क-ए-ग़म से नए फ़रमान निकल आते हैं

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