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क्या किसी बात की सज़ा है मुझे - ऐन इरफ़ान कविता - Darsaal

क्या किसी बात की सज़ा है मुझे

क्या किसी बात की सज़ा है मुझे

रास्ता फिर बुला रहा है मुझे

ज़िंदा रहने की मुझ को आदत है

रोज़ मरने का तजरबा है मुझे

इतना गुम हूँ के अब मिरा साया

मेरे अंदर भी ढूँडता है मुझे

चाँद को देख कर यूँ लगता हे

चाँद से कोई देखता है मुझे

पहले तो जुस्तुजू थी मंज़िल की

अब कोई काम दूसरा हे मुझे

ये मिरी नींद किस मक़ाम पे है

ख़्वाब में ख़्वाब दिख रहा है मुझे

आइने में छुपा हुआ चेहरा

ऐसा लगता है जानता है मुझे

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