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आहों की आज़ारों की आवाज़ें थीं - ऐन इरफ़ान कविता - Darsaal

आहों की आज़ारों की आवाज़ें थीं

आहों की आज़ारों की आवाज़ें थीं

राह में ग़म के मारों की आवाज़ें थीं

दूर ख़ला में एक सियाही फैली थी

बस्ती में अँगारों की आवाज़ें थीं

आँखों में ख़्वाबों ने शोर मचाया था

आसमान पर तारों की आवाज़ें थीं

घर के बाहर आवाज़ें थीं रस्तों की

और घर में दीवारों की आवाज़ें थीं

अब मुझ में इक सन्नाटे की चीख़ें है

पहले कुछ बीमारों की आवाज़ें थीं

उस बस्ती पे मजबूरी का साया था

घर घर में बाज़ारों की आवाज़ें थीं

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