जिधर से वादी-ए-हैरत में हम गुज़रते हैं
जिधर से वादी-ए-हैरत में हम गुज़रते हैं
उधर तो अहल-ए-तमन्ना भी कम गुज़रते हैं
तिरे हुज़ूर जो अन्फ़ास-ए-ग़म गुज़रते हैं
अजब हयात के आलम से हम गुज़रते हैं
रवाँ है बर्क़ का शो'ला सहाब-ए-रहमत में
नक़ाब डाल के अहल-ए-सितम गुज़रते हैं
हयात रोक रही है कोई क़दम न बढ़ाए
कि आज मंज़िल-ए-हस्ती से हम गुज़रते हैं
ललक बढ़ा के फ़क़त चंद बूँद बरसा के
रवाँ-दवाँ से सहाब-ए-करम गुज़रते हैं
तअ'ज्जुब उन के लिए मर्ग-ए-ना-गहानी का
जो ज़िंदगी के मराहिल से कम गुज़रते हैं
मुख़ालिफ़त है खुली अब न दोस्ती 'अहसन'
घुटी घुटी सी फ़ज़ाओं से हम गुज़रते हैं
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