मुतमइन अपने यक़ीं पर अगर इंसाँ हो जाए
सौ हिजाबों में जो पिन्हाँ है नुमायाँ हो जाए
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राह-ए-उल्फ़त का निशाँ ये है कि वो है बे-निशाँ
मुझे ख़बर नहीं ग़म क्या है और ख़ुशी क्या है
यहाँ बग़ैर-फ़ुग़ाँ शब बसर नहीं होती
अदा में बाँकपन अंदाज़ में इक आन पैदा कर
चाहिए इश्क़ में इस तरह फ़ना हो जाना
जब तक अपने दिल में उन का ग़म रहा
हम अपनी बे-क़रारी-ए-दिल से हैं बे-क़रार
साक़ी-ओ-वाइ'ज़ में ज़िद है बादा-कश चक्कर में है
हमारा इंतिख़ाब अच्छा नहीं ऐ दिल तो फिर तू ही
इश्क़ रुस्वा-कुन-ए-आलम वो है 'अहसन' जिस से