हम अपनी बे-क़रारी-ए-दिल से हैं बे-क़रार
आमेज़़िश-ए-सुकूँ है इस इज़्तिराब में
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है वो जब दिल में तो कैसी जुस्तुजू
क्यूँ चुप हैं वो बे-बात समझ में नहीं आता
इश्क़ रुस्वा-कुन-ए-आलम वो है 'अहसन' जिस से
शेख़ को जन्नत मुबारक हम को दोज़ख़ है क़ुबूल
मुतमइन अपने यक़ीं पर अगर इंसाँ हो जाए
साक़ी-ओ-वाइ'ज़ में ज़िद है बादा-कश चक्कर में है
तमाम उम्र इसी रंज में तमाम हुई
चाहिए इश्क़ में इस तरह फ़ना हो जाना
राह-ए-उल्फ़त का निशाँ ये है कि वो है बे-निशाँ
तंग आ गया हूँ वुस्अत-ए-मफ़हूम-ए-इश्क़ से
ऐ दिल न सुन अफ़्साना किसी शोख़ हसीं का
नज़्ज़ारा जो होता है लब-ए-बाम तुम्हारा