सो हश्र में लिए दिल-ए-हसरत मआब में
सो हश्र में लिए दिल-ए-हसरत मआब में
आबाद हो रहा हूँ जहान-ए-ख़राब में
हम अपनी बे-क़रारी-ए-दिल से हैं बे-क़रार
आमेज़़िश-ए-सुकूँ है इस इज़्तिराब में
अब सैर-ए-गुल कहाँ दिल-ए-रंगीं नज़र कहाँ
इक ख़्वाब था जो देख लिया था शबाब में
बढ़ बढ़ के छुप रहे हैं पस पर्दा बार बार
क्या क्या तकल्लुफ़ात हैं तर्क-ए-हिजाब में
'अहसन' दिल उन को दो मगर इतना तो पूछ लो
लेते हो तुम ये नक़्द रक़म किस हिसाब में
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