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साक़ी-ओ-वाइ'ज़ में ज़िद है बादा-कश चक्कर में है - अहसन मारहरवी कविता - Darsaal

साक़ी-ओ-वाइ'ज़ में ज़िद है बादा-कश चक्कर में है

साक़ी-ओ-वाइ'ज़ में ज़िद है बादा-कश चक्कर में है

तौबा लब पर और लब डूबा हुआ साग़र में है

रोक ले ऐ ज़ब्त जो आँसू कि चश्म-ए-तर में है

कुछ नहीं बिगड़ा है अब तक घर की दौलत घर में है

दब गया था मेरे मरने से जो ऐ महशर-ख़िराम

क्या वही ख़्वाबीदा फ़ित्ना सूरत-ए-महशर में है

जिस को तू चाहे जला दे जिस को चाहे मार दे

वो भी तेरी बात में ये भी तिरी ठोकर में है

दिल के मिट जाने से जोश-ए-इश्क़ घट सकता है क्या

दिल से क्या मतलब कि ये सौदा तो मेरे सर में है

मानता है आस्ताँ को तेरे काबा और कौन

ये हमारा ही निशान-ए-सज्दा संग-ए-दर में है

'अहसन'-ए-आवारा-क़िस्मत की न पूछो गर्दिशें

अपने घर बैठा हुआ तक़दीर के चक्कर में है

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